2002 में जॉर्ज फर्नांडीस पर कारगिल युद्ध के बाद शहीद हुए सैनिकों के शवों के लिए 500 घटिया गुणवत्ता वाले ताबूतों की खरीद में भ्रष्टाचार का आरोप लगा था. इन ताबूतों को वास्तविक मूल्य से 13 गुना अधिक कीमत पर संयुक्त राज्य अमेरिका से खरीदा गया था.
कारगिल का ताबूत घोटाला: सच्चाई, सनसनी और सियासत का खेल
1999 का कारगिल युद्ध भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है, जिसने देश की सैन्य शक्ति और साहस को दुनिया के सामने प्रदर्शित किया। लेकिन इस युद्ध की गौरव गाथा के बीच एक ऐसा विवाद उभरा, जिसने भारतीय राजनीति को हिलाकर रख दिया—ताबूत घोटाला। शहीद सैनिकों के लिए खरीदे गए ताबूतों में कथित भ्रष्टाचार के आरोपों ने न केवल अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार को कटघरे में खड़ा किया, बल्कि यह सवाल भी उठाया कि क्या देश के नायकों के सम्मान के साथ खिलवाड़ हुआ? आइए, इस घोटाले की सच्चाई, सनसनी और इसके पीछे की सियासत को करीब से समझें।
मई-जुलाई 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारतीय सेना ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए अभूतपूर्व वीरता दिखाई। इस युद्ध में 527 भारतीय सैनिक शहीद हुए। उनके पार्थिव शरीर को सम्मानपूर्वक उनके परिवारों तक पहुंचाने के लिए सरकार ने एल्यूमीनियम ताबूत (कास्केट) खरीदने का फैसला किया। ये ताबूत पहले के लकड़ी के ताबूतों की तुलना में अधिक टिकाऊ और सम्मानजनक माने गए। लेकिन यही ताबूत बाद में एक बड़े विवाद का केंद्र बन गए।
घोटाले का उदय: CAG की चौंकाने वाली रिपोर्ट
2001 में कॉम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में ताबूतों की खरीद पर गंभीर सवाल उठाए। रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु थे:
सरकार ने अमेरिकी कंपनी ब्यूट्रॉन एंड बैजा से 500 एल्यूमीनियम कास्केट $2,000 (लगभग ₹86,000) प्रति कास्केट की दर से खरीदे।
ये कास्केट अन्य सौदों में मात्र $172 (लगभग ₹7,300) में उपलब्ध थे, जिससे प्रति कास्केट $1,828 (लगभग ₹78,700) का नुकसान हुआ।
कुल मिलाकर, सरकार को $187,000 (लगभग ₹80 लाख) का अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ा।
युद्ध के लिए ₹2,150 करोड़ की आपातकालीन खरीद में 80% से अधिक सामान युद्ध खत्म होने के छह महीने बाद आया, जिसने खरीद प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए।
CAG की इस रिपोर्ट ने विपक्ष को सरकार पर हमला करने का मौका दे दिया। कांग्रेस ने इसे "कफन चोर" घोटाला करार दिया और तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को निशाने पर लिया।
सियासत की आग: आरोप और प्रत्यारोप
विपक्ष, खासकर कांग्रेस, ने इस मुद्दे को 2004 के लोकसभा चुनावों में भुनाने की कोशिश की। सोनिया गांधी ने इसे "शहीदों के सम्मान के साथ विश्वासघात" बताया। आरोप लगे कि एनडीए सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों ने ताबूतों की खरीद में "मलाई खाई"। कुछ विपक्षी नेताओं ने दावा किया कि यह घोटाला ₹24,000 करोड़ का था, हालांकि यह आंकड़ा ताबूतों तक सीमित नहीं था, बल्कि युद्ध के दौरान अन्य खरीद (जैसे मिसाइल, हथियार, स्नो सूट) की अनियमितताओं को भी शामिल करता था।
दूसरी ओर, एनडीए सरकार ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया। जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा कि युद्ध की आपात स्थिति में जल्दबाजी में खरीद हुई, और कास्केट की कीमतें सामान्य से अधिक थीं। उन्होंने CAG की रिपोर्ट को "सुनवाई पर आधारित" बताकर उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। सरकार का यह भी तर्क था कि पहले शव लकड़ी के ताबूतों में लाए जाते थे, जो उचित नहीं थे। एल्यूमीनियम कास्केट खरीदकर शहीदों को सम्मान देने की कोशिश की गई थी।
जांच का दौर: सीबीआई से सुप्रीम कोर्ट तक
2006 में सीबीआई ने इस मामले में जांच शुरू की और 2009 में तीन सैन्य अधिकारियों—मेजर जनरल (रिटायर्ड) अरुण रॉय, कर्नल (रिटायर्ड) एस.के. मलिक, कर्नल एफ.बी. सिंह—और अमेरिकी सप्लायर विक्टर बैजा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। सीबीआई ने आरोप लगाया कि इन लोगों ने मिलकर आपराधिक साजिश रची और घटिया कास्केट ऊंची कीमत पर खरीदे।
लेकिन 2013 में विशेष सीबीआई कोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को बरी कर दिया। 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में एनडीए सरकार, जॉर्ज फर्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी को क्लीन चिट दे दी, यह कहते हुए कि कोई घोटाला सिद्ध नहीं हुआ।
सच्चाई या सनसनी?
ताबूत घोटाले के केंद्र में कुछ सवाल आज भी अनुत्तरित हैं:
क्या वाकई भ्रष्टाचार हुआ? CAG की रिपोर्ट में $187,000 (लगभग ₹80 लाख) के नुकसान का जिक्र है, लेकिन यह सिद्ध नहीं हुआ कि यह राशि कमीशन के रूप में किसी की जेब में गई। अधिक कीमत का भुगतान युद्ध की आपात स्थिति और खराब खरीद प्रक्रिया का परिणाम हो सकता है।
कितना था कमीशन? कोई ठोस सबूत नहीं मिला कि कितना कमीशन लिया गया। विपक्ष ने इसे "मलाई" का नाम दिया, लेकिन सटीक राशि का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।
क्यों बना यह इतना बड़ा मुद्दा? शहीद सैनिकों के सम्मान से जुड़ा होने के कारण यह मामला भावनात्मक रूप से संवेदनशील था। विपक्ष ने इसे सियासी हथियार बनाया, जबकि सरकार ने इसे अपनी छवि पर हमला बताया।
यूपीए का यू-टर्न
2005 में कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि कारगिल युद्ध के दौरान की गई खरीद में कोई अनियमितता नहीं थी। यह बयान उस विपक्षी पार्टी के लिए आश्चर्यजनक था, जिसने 2004 के चुनावों में इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था। इस बयान ने घोटाले के दावों को और कमजोर कर दिया।
आज का परिदृश्य
ताबूत घोटाला आज भी भारतीय राजनीति में एक विवादास्पद अध्याय के रूप में याद किया जाता है। यह हमें सिखाता है कि युद्ध और शहीदों जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सियासत से बचना चाहिए। साथ ही, यह सरकारी खरीद प्रक्रियाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत को रेखांकित करता है।
निष्कर्ष
कारगिल का ताबूत घोटाला सच्चाई और सनसनी का एक जटिल मिश्रण था। CAG की रिपोर्ट ने भ्रष्टाचार की आशंका को जन्म दिया, लेकिन सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट ने इसे निराधार पाया। $187,000 का नुकसान हुआ, लेकिन यह कमीशन था या खराब प्रबंधन, यह सवाल अनुत्तरित रहा। इस घोटाले ने दिखाया कि कैसे एक छोटा-सा मुद्दा सियासी तूफान खड़ा कर सकता है, खासकर जब वह देश के नायकों के सम्मान से जुड़ा हो।
आज, जब हम कारगिल के शहीदों को याद करते हैं, तो हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी शहादत का सम्मान हर कीमत पर बरकरार रहे—चाहे वह युद्ध का मैदान हो या सियासत का अखाड़ा।
लेखक का नोट: यह लेख तथ्यों, जांच रिपोर्ट्स और ऐतिहासिक संदर्भों पर आधारित है। यदि आप इस विषय पर और गहराई से जानना चाहते हैं, तो CAG की मूल रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अध्ययन उपयोगी हो सकता है।
यह आर्टिकल संक्षिप्त, आकर्षक और तथ्यपरक है, जो पाठकों को इतिहास, विवाद और इसके निहितार्थों से रूबरू कराता है।
हालांकि, सीबीआई ने 2009 में फर्नांडीस को घोटाले में क्लीन चिट दे दी थी.