भारत में बैंकों ने पिछले एक दशक में 12.3 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को राइट-ऑफ किया है, जिसमें अनिल अंबानी, जिंदल, और जेपी ग्रुप जैसे बड़े उद्योगपतियों की कंपनियां शामिल हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2015 से 2024 तक बैंकों ने यह राशि माफ की, जिसमें से 6.5 लाख करोड़ रुपये पिछले पांच वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने राइट-ऑफ किए। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) इस सूची में सबसे आगे है।
बड़े डिफॉल्टरों का बोझ
द इंडियन एक्सप्रेस की आरटीआई-आधारित रिपोर्ट के मुताबिक, शीर्ष 100 डिफॉल्टरों के पास कुल एनपीए का 43% हिस्सा है। अनिल अंबानी की रिलायंस कम्युनिकेशंस पर 47,251 करोड़ रुपये का कर्ज था, जिसे मात्र 455 करोड़ रुपये में सेटल किया गया। जिंदल और जेपी ग्रुप की कंपनियां भी कर्ज चुकाने में नाकाम रहीं, जिससे बैंकों पर दबाव बढ़ा।
मध्यम वर्ग पर असर
जब बड़े उद्योगपतियों के कर्ज माफ हो रहे हैं, मध्यम वर्ग को छोटे-मोटे लोन पर भारी ब्याज और सख्त वसूली का सामना करना पड़ता है। कार लोन, होम लोन, या पर्सनल लोन न चुका पाने पर बैंक तुरंत नोटिस भेजते हैं, संपत्ति जब्त करते हैं, या क्रेडिट स्कोर खराब करते हैं। मिनिमम बैलेंस न रख पाने पर भी बैंकों द्वारा जुर्माना वसूला जाता है। एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा गया, "किसान का 2.7 लाख का कर्ज न चुकाने पर घर सील, लेकिन अंबानी का 49,000 करोड़ का कर्ज 455 करोड़ में सेटल!"
बैंकों की दोहरी नीति
बड़े डिफॉल्टरों के लिए राइट-ऑफ और सेटलमेंट आसान हैं, लेकिन मध्यम वर्ग के लिए ऐसी कोई राहत नहीं। बैंकों की यह दोहरी नीति न केवल आर्थिक असमानता को बढ़ाती है, बल्कि आम जनता का भरोसा भी तोड़ती है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने बैंकों से राइट-ऑफ की पारदर्शिता बढ़ाने को कहा है, लेकिन कर्ज देने और वसूली में सख्ती की जरूरत है।
निष्कर्ष
बैंकों की कर्ज माफी से बड़े उद्योगपतियों को राहत मिल रही है, लेकिन इसका बोझ मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। पारदर्शी और निष्पक्ष बैंकिंग नीतियों की जरूरत है ताकि छोटे लोन लेने वालों को भी उचित मौका मिले और बैंकों पर एनपीए का दबाव कम हो।