एक अरब विश्लेषक ने ज़ायोनियों में फ़िलिस्तीनियों के कष्टों के प्रति संरचनात्मक उदासीनता को नैतिक पतन या मोरल ब्लाइंडनेस की अलामत बताया।
गाज़ा पट्टी में क़ैद ज़ायोनियों के परिवारों ने पिछले सप्ताह तेल अवीव में फिर से प्रदर्शन किया और उनकी रिहाई की मांग की। प्रदर्शनकारियों ने नारे लगाकर ग़ाज़ा युद्ध के अंत और फ़िलिस्तीन के प्रतिरोध आंदोलन के साथ व्यापक बंदियों के आदान प्रदान के समझौते की मांग की।
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार यहूदी प्रदर्शनकारियों की
यह मांग ग़ाज़ा के लोगों के प्रति सहानुभूति का संकेत नहीं है, हालांकि वे भी ग़ाज़ा युद्ध के समाप्त होने की इच्छुक हैं। इस मांग का मुख्य कारण यह है कि वे अपने ज़ायोनी कैदियों की हमास के कब्ज़े में स्थिति के बारे में चिंतित हैं।
पार्स टुडे के रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय मामलों के वरिष्ठ विश्लेषक मुहम्मद अल-सनूसी ने ज़ायोनियों में फ़िलिस्तीनियों के कष्ट के प्रति संरचनात्मक उदासीनता की वैचारिक और मनोवैज्ञानिक जड़ों की व्याख्या करते हुए इस स्थिति को नैतिक पतन का परिणाम बताया।
अल-सनूसी ने, जो मोरक्को के मोहम्मद पंचम विश्वविद्यालय में भविष्य अध्ययन और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर हैं, अपने विश्लेषात्मक लेख में, जो अल जज़ीरा वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ, तर्क दिया कि ज़ायोनिज़्म केवल एक पारंपरिक राष्ट्रीय आंदोलन नहीं है, बल्कि एक जातीय-राजनीतिक विचारधारा है जिसने बीसवीं सदी में यहूदी धर्म की परिभाषा पुनः की और उसका मानना है कि फ़िलिस्तीन पर केवल उसका अधिकार है।
उसके इस दृष्टिकोण का आधार साम्राज्यवाद और फ़िलिस्तीनियों के अधिकार का इंकार है और उसका यह दृष्टिकोण इस बात का कारण बना कि इस्राईल और यहूदियों की सुरक्षा को एक चीज़ समझा जाये और दोनों को एक दूसरे से जोड़ दिया और फ़िलिस्तीनियों की ज़िन्दगी को इस्राईल और यहूदियों की सुरक्षा के ख़तरे के रूप में देखा जाता है।
अल-सनूसी ने 2018 में पारित "यहूदी राष्ट्र-राज्य कानून" का हवाला देते हुए लिखा कि इस कानून ने स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार केवल यहूदियों के लिए घोषित किया और अरबी भाषा को "निचले" दर्जे पर रखा। उनके अनुसार इस कानूनी व्याख्या में एक फ़िलिस्तीनी नागरिक यहां तक कि औपचारिक अर्थ में भी नागरिक नहीं है, बल्कि अपने ही देश में एक सशर्त निवासी है।
यह विश्लेषक मानते हैं कि इस शासन की बुनियाद इस तरह बनाई गई है कि भूमि, संसाधनों और जनसंख्या को दीर्घकालिक जातीय श्रेष्ठता की सेवा में पुनर्वितरित किया जा सके।
अल-सनूसी ने लिखा कि ज़ायोनी मीडिया फ़िलिस्तीन की नकारात्मक छवि को दोहराता है और शासन के स्कूल यह सिखाते हैं कि इज़राइल की स्थापना को मुक्ति कहा जाता है, ताकि सामाजिक स्मृति में फ़िलिस्तीन का विषय ख़त्म हो जाए।
उन्होंने इस प्रक्रिया का परिणाम सहानुभूति की प्राथमिकता बताया जिसमें एक फ़िलिस्तीनी की मौत केवल एक आम ख़बर होती है, जबकि ज़ायोनी बंदियों की सुरक्षा को लेकर चिंता व भय को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाता है।
अंतरराष्ट्रीय मामलों के इस विशेषज्ञ ने कहा कि 2024 और 2025 में बेंजामिन नेतन्याहू की नीतियों के खिलाफ़ व्यापक आंतरिक विरोध केवल ग़ाज़ा में नागरिकों की हत्या की निंदा के लिए नहीं, बल्कि मुख्य रूप से ज़ायोनी बंदियों की रिहाई की मांग के लिए था जो यह दर्शाता है कि इज़राइल में सामूहिक विवेक केवल तभी सक्रिय होता है जब ज़ायोनी ख़तरे में हों। MM