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Monday, 7 April 2025

नेतन्याहू के हंगरी दौरे के खिलाफ उबलता जन आक्रोश दिखाए काले झंडे

नेतन्याहू के हंगरी दौरे के खिलाफ उबलता जन आक्रोश दिखाए काले झंडे
3 अप्रैल, 2025 को इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के हंगरी दौरे ने न केवल कूटनीतिक हलकों में हलचल मचाई, बल्कि हंगरी की सड़कों पर भी एक तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया। इस दौरे के खिलाफ जनता का गुस्सा उस समय साफ दिखाई दिया जब कुछ प्रदर्शनकारियों ने इज़राइली झंडे को फाड़कर अपनी नाराज़गी जाहिर की। यह घटना महज़ एक प्रतीकात्मक विरोध नहीं थी, बल्कि गहरे असंतोष और नैतिक सवालों का प्रकटीकरण थी। आइए, इस विरोध के कारणों, संदर्भ और प्रभाव को गहराई से समझें।
    दौरे का संदर्भ: ICC वारंट और हंगरी का रुख

नेतन्याहू का हंगरी दौरा ऐसे समय में हुआ जब अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (ICC) ने उनके खिलाफ गाजा में कथित युद्ध अपराधों के लिए गिरफ्तारी वारंट जारी किया था। इस वारंट ने वैश्विक मंच पर नेतन्याहू की स्थिति को कमज़ोर किया, लेकिन हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन ने इसे नज़रअंदाज़ करते हुए न केवल नेतन्याहू का स्वागत किया, बल्कि ICC से हटने की प्रक्रिया शुरू करने की घोषणा भी की। यह कदम हंगरी की उस स्वतंत्र विदेश नीति का हिस्सा था, जो पश्चिमी दबावों को चुनौती देती रही है।

हालांकि, हंगरी सरकार का यह फैसला जनता के एक हिस्से को रास नहीं आया। प्रदर्शनकारियों का मानना था कि एक ऐसे नेता का स्वागत करना, जिस पर मानवता के खिलाफ अपराधों के गंभीर आरोप हैं, न केवल अंतरराष्ट्रीय न्याय का मज़ाक उड़ाता है, बल्कि हंगरी की नैतिक साख को भी दांव पर लगाता है।

सड़कों पर उमड़ा गुस्सा: झंडा फाड़ने का प्रतीक

बुडापेस्ट की सड़कों पर प्रदर्शनकारी हाथों में तख्तियाँ और नारों के साथ उतरे। कुछ जगहों पर इज़राइली झंडे को फाड़ने की घटनाएँ सामने आईं, जो उनके गुस्से का सबसे सशक्त प्रतीक बन गईं। यह कृत्य नेतन्याहू की नीतियों—खासकर गाजा में चल रहे संघर्ष—और हंगरी सरकार के उनके समर्थन के खिलाफ एक सीधा विद्रोह था। प्रदर्शनकारी नारे लगा रहे थे, "न्याय दो, अपराधी को मत छिपाओ!" और "हंगरी को शर्मिंदा मत करो!"

हालांकि ये विरोध प्रदर्शन पूरे देश में व्यापक नहीं थे, लेकिन इनकी तीव्रता ने अंतरराष्ट्रीय ध्यान खींचा। झंडा फाड़ना केवल एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं थी, बल्कि यह उन हज़ारों लोगों की पीड़ा का प्रतिबिंब था, जो गाजा संघर्ष में प्रभावित हुए और जिन्हें प्रदर्शनकारी नेतन्याहू की नीतियों का परिणाम मानते थे।

विरोध के पीछे की भावना

हंगरी की जनता का यह गुस्सा केवल नेतन्याहू तक सीमित नहीं था। यह हंगरी सरकार की उस नीति के खिलाफ भी था, जो अंतरराष्ट्रीय नियमों और मानवाधिकारों को दरकिनार करने को तैयार दिखती है। कई प्रदर्शनकारियों ने इसे हंगरी के यूरोपीय संघ और पश्चिमी मूल्यों से बढ़ते अलगाव का एक और सबूत माना। उनके लिए, यह दौरा सिर्फ एक कूटनीतिक मुलाकात नहीं, बल्कि नैतिकता और जवाबदेही का सवाल था।

मानवाधिकार संगठनों जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस विरोध का समर्थन किया और हंगरी से मांग की कि वह ICC के वारंट का सम्मान करे। प्रदर्शनकारियों का एक वर्ग इसे वैश्विक एकजुटता का हिस्सा मानता था—फिलिस्तीन के लोगों के साथ खड़े होने और युद्ध अपराधों के खिलाफ आवाज़ उठाने का एक तरीका।

हंगरी सरकार की प्रतिक्रिया

विक्टर ओर्बन की सरकार ने इन विरोध प्रदर्शनों को "सीमित और अतिवादी" करार देते हुए खारिज कर दिया। सरकार का कहना था कि यह दौरा दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे संबंधों को मज़बूत करने का हिस्सा था और इसमें कोई नैतिक उल्लंघन नहीं था। ओर्बन ने इसे पश्चिमी देशों के "दोहरे मापदंडों" के खिलाफ हंगरी की स्वायत्तता का प्रतीक बताया। लेकिन यह तर्क प्रदर्शनकारियों को शांत करने में नाकाम रहा।

वैश्विक प्रभाव और बहस

नेतन्याहू के दौरे और हंगरी में हुए विरोध ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक नई बहस को जन्म दिया। जहाँ कुछ देशों ने हंगरी के फैसले की आलोचना की, वहीं अन्य ने इसे संप्रभुता का मामला बताकर समर्थन किया। सोशल मीडिया पर "HungaryProtests" और "NetanyahuOut" जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे, जिससे यह घटना वैश्विक चर्चा का हिस्सा बन गई।

निष्कर्ष: एक सबक और एक सवाल

हंगरी की जनता का नेतन्याहू के दौरे के खिलाफ यह विरोध भले ही सीमित पैमाने पर रहा हो, लेकिन इसने एक बड़ा संदेश दिया—कि सत्ता और कूटनीति के खेल में जनता की आवाज़ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इज़राइली झंडा फाड़ने की घटना एक प्रतीक थी, जो गुस्से, निराशा और न्याय की मांग को दर्शाती थी। यह दौरा हंगरी और इज़राइल के लिए एक कूटनीतिक जीत हो सकता है, लेकिन यह हंगरी की जनता के एक हिस्से के लिए नैतिक हार का प्रतीक बन गया।

सवाल यह है कि क्या यह विरोध एक अकेली घटना बनकर रह जाएगा, या यह आने वाले दिनों में बड़े जन आंदोलन की शुरुआत है? समय ही इसका जवाब देगा। तब तक, यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि कूटनीति और नैतिकता के बीच की रेखा कहाँ खींची जानी चाहिए।