ताजिया, इमाम हुसैन की शहादत की याद में बनाई जाने वाली कब्र की प्रतीकात्मक प्रतिकृति, मुहर्रम के महीने में शिया मुसलमानों द्वारा शोक और श्रद्धांजलि के रूप में बनाई और निकाली जाती है। यह परंपरा भारत में गहरी जड़ें रखती है और इसे एक विशुद्ध भारतीय परंपरा माना जाता है, जिसका इस्लाम के मूल सिद्धांतों से सीधा संबंध नहीं है। ताजिया बनाने और जुलूस निकालने की प्रथा भारत से शुरू होकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों तक फैली। आइए, इस परंपरा की शुरुआत, इसका पहला ताजिया और इसके विकास के बारे में विस्तार से जानते हैं।
ताजिया क्या है? ताजिया इराक के कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र की प्रतीकात्मक प्रतिकृति है।
इसे बांस, लकड़ी, कागज, कपड़े, धातु और फूलों से सजाकर बनाया जाता है। मुहर्रम के पहले दिन से ताजिया बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है और दसवें दिन, जिसे आशुरा कहा जाता है, इसे जुलूस में निकाला जाता है। आशुरा के दिन इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की कर्बला के युद्ध (680 ईस्वी) में शहादत को याद किया जाता है। जुलूस के बाद ताजिया को कर्बला नामक स्थान पर दफनाया जाता है या नदी में विसर्जित किया जाता है। यह परंपरा शिया समुदाय के साथ-साथ सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिंदू समुदायों में भी प्रचलित है।
भारत में ताजिया बनाने की शुरुआत ताजिया बनाने की परंपरा भारत में 14वीं शताब्दी में शुरू हुई।
इतिहासकारों के अनुसार, इसका प्रारंभ तुर्की मूल के शासक तैमूर लंग (Timur Lang) के शासनकाल में हुआ। तैमूर, जो शिया संप्रदाय से था, हर साल मुहर्रम के महीने में इराक के कर्बला में इमाम हुसैन की जियारत (दर्शन) के लिए जाता था। लेकिन 1398 ईस्वी (801 हिजरी) में, जब वह भारत में था और गंभीर हृदय रोग के कारण कर्बला का लंबा सफर नहीं कर सका, तो उसके दरबारियों ने उसे खुश करने के लिए एक अनोखा उपाय निकाला। तैमूर के दरबारियों ने कारीगरों को बुलाकर इमाम हुसैन की कब्र जैसी प्रतीकात्मक संरचना बनाने का आदेश दिया। इन कारीगरों ने बांस की खपच्चियों, रंग-बिरंगे कपड़ों और फूलों से एक ढांचा तैयार किया, जिसे ताजिया नाम दिया गया। यह ताजिया तैमूर के महल परिसर में रखा गया और उसे इतना पसंद आया कि उसने इसे हर साल बनाने का आदेश दिया। इस तरह, 1398 ईस्वी में भारत में पहला ताजिया बना, और यहीं से ताजिया बनाने की परंपरा की नींव पड़ी।
सबसे पहले ताजिया कहां बना? पहला ताजिया भारत में, संभवतः दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में, तैमूर लंग के दरबार में बनाया गया। तैमूर 1398 में भारत आया था और उसने दिल्ली में महमूद तुगलक को हराकर अपनी सत्ता स्थापित की थी। उसके दरबारियों ने यहीं पर पहला ताजिया बनवाया। यह ताजिया इमाम हुसैन की कब्र की प्रतीकात्मक संरचना थी, जिसे बांस, कपड़े और फूलों से सजाया गया था।
कहा जाता है कि तैमूर के इस कदम ने पूरे देश में ताजिया बनाने की होड़ सी मचा दी। दिल्ली और आसपास के शिया नवाबों ने इस परंपरा को तुरंत अपनाया, और धीरे-धीरे यह प्रथा भारत के अन्य हिस्सों में फैल गई।
परंपरा का विस्तार तैमूर की मृत्यु 1405 ईस्वी में कजाकिस्तान में हो गई, लेकिन उसके द्वारा शुरू की गई ताजिया की परंपरा भारत में फलती-फूलती रही। तुगलक और तैमूर वंश के बाद मुगल शासकों ने भी इस परंपरा को बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए, मुगल बादशाह हुमायूं ने 962 हिजरी (1555 ईस्वी) में बैरम खां से 46 तोला पन्ना (हरित मणि) से बना ताजिया मंगवाया था।
ताजिया बनाने की परंपरा भारत से निकलकर पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार तक पहुंची। हालांकि, यह उल्लेखनीय है कि तैमूर के अपने देश उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान या शिया बहुल देश ईरान में ताजिया बनाने की परंपरा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यह भारत की अनूठी सांस्कृतिक परंपरा बन गई, जिसमें शिया, सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिंदू समुदाय भी शामिल हो गए।
ताजिया बनाने में क्षेत्रीय योगदान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ताजिया बनाने की परंपरा ने स्थानीय कला और संस्कृति को समृद्ध किया है। कुछ प्रमुख स्थानों पर ताजिया बनाने की परंपराएं इस प्रकार हैं:
1. भोपाल
भोपाल में बेगमों के शासनकाल के दौरान ताजिया बनाने की परंपरा शुरू हुई। यहां किन्नर समुदाय ताजिया बनाने में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह परंपरा करीब 150 साल पुरानी है और भोपाल के ताजिए अपनी भव्यता और कारीगरी के लिए जाने जाते हैं।
जावरा (मध्य प्रदेश) जावरा में ताजिया बांस के बजाय शीशम और सागवान की लकड़ी से बनाए जाते हैं, जिन पर कांच और माइका का काम होता है। यहां 300 से अधिक 12 फीट ऊंचे ताजिए बनते हैं।
बीकानेर (राजस्थान) बीकानेर के सोनगिरी कुआं क्षेत्र में 1635 से मिट्टी का 12 फीट ऊंचा ताजिया बनाया जाता है। यह ताजिया हौद की मिट्टी और कच्ची ईंटों से तैयार होता है और उस्ता कला से सजाया जाता है। यह परंपरा पूरे देश में अनूठी है।
झांसी (उत्तर प्रदेश)
झांसी में 1855 में महारानी लक्ष्मीबाई के आदेश पर बलदेव बढ़ई ने ताजिया बनाया था, जो आज भी हिंदू परिवार द्वारा बनाया जाता है। यह ताजिया जुलूस की अगवानी करता है और गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है।
जयपुर (राजस्थान)
जयपुर में 270 साल पुरानी ताजिया बनाने की परंपरा महाराजा राम सिंह की श्रद्धा से शुरू हुई थी। यह परंपरा सांप्रदायिक एकता की मिसाल है। ### ताजिया और सांस्कृतिक महत्व ताजिया बनाने की परंपरा भारत में सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक बन गई है। शिया और सुन्नी समुदायों के अलावा, हिंदू समुदाय भी कई जगहों पर ताजिया बनाने और जुलूस में शामिल होने में हिस्सा लेता है। उदाहरण के लिए, झांसी में हिंदू परिवार द्वारा बनाया गया ताजिया और जयपुर में महाराजा राम सिंह द्वारा शुरू की गई परंपरा गंगा-जमुनी तहजीब को दर्शाती है।
ताजिया न केवल शोक का प्रतीक है, बल्कि यह एक कला और कारीगरी का नमूना भी है। फैजाबाद, भोपाल, जावरा और निहालगढ़ जैसे शहरों में ताजिया बनाना एक बड़ा कारोबार है, जो स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का साधन भी है।
ताजिया पर विवाद कुछ इस्लामी विद्वानों, विशेष रूप से देवबंदी और वहाबी विचारधारा वाले, ताजिया बनाने को इस्लाम के खिलाफ मानते हैं और इसे "बिदत" (नवाचार) कहते हैं। दारुल उलूम देवबंद ने ताजिया बनाने के खिलाफ फतवा भी जारी किया है। हालांकि, शिया समुदाय और कुछ सुन्नी समुदाय इसे इमाम हुसैन के प्रति श्रद्धा का प्रतीक मानते हैं।
निष्कर्ष ताजिया बनाने की परंपरा भारत में 14वीं शताब्दी में तैमूर लंग के शासनकाल में शुरू हुई। पहला ताजिया 1398 ईस्वी में दिल्ली के आसपास तैमूर के दरबार में बनाया गया था। यह परंपरा भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता का हिस्सा बन गई, जिसमें शिया, सुन्नी और हिंदू समुदाय शामिल हैं। भोपाल, जावरा, बीकानेर और झांसी जैसे शहरों में ताजिया की अनूठी शैलियां और परंपराएं इसकी समृद्धि को दर्शाती हैं। यह न केवल इमाम हुसैन की शहादत की याद दिलाता है, बल्कि भारत की सांप्रदायिक एकता और कारीगरी का प्रतीक भी है।