नई दिल्ली: भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में एक नया विवाद खड़ा हो गया है। सोशल मीडिया और कुछ राजनीतिक चर्चाओं में यह अफवाह तेज हो रही है कि अगला लोकसभा चुनाव (2029) रद्द होकर 'नॉमिनेटेड राजा शाही' की व्यवस्था लागू हो सकती है। मतलब, जनता के वोट की बजाय ऊपर से नामित 'राजाओं' या नेताओं द्वारा शासन का दौर शुरू हो जाए। क्या यह संभव है? अगर ऐसा हुआ तो जनता की प्रतिक्रिया क्या होगी? और क्या मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी चुपचाप तमाशबीन बनी रहेगी? इन सवालों ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है।
क्या है 'नॉमिनेटेड राजा शाही' का मतलब? 'नॉमिनेटेड राजा शाही' शब्द संभवतः एक व्यंग्यात्मक या कटाक्षपूर्ण अभिव्यक्ति है, जो लोकतंत्र के बजाय एक प्रकार की आश्रित राजशाही या नाममात्र की सत्ता की ओर इशारा करता है। इसमें चुनाव की प्रक्रिया को दरकिनार कर सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग ही उत्तराधिकारी या शासक चुन लें। भारत जैसे संवैधानिक गणराज्य में यह अवधारणा पूरी तरह असंभव लगती है, क्योंकि संविधान (अनुच्छेद 79-122) स्पष्ट रूप से लोकसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष मताधिकार से होने का प्रावधान करता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में 54.3 करोड़ मतदाताओं ने भाग लिया, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक उत्सव था। अगला चुनाव 2029 तक अपेक्षित है, और चुनाव आयोग द्वारा कोई रद्दीकरण की घोषणा नहीं हुई है। फिर भी, कुछ सियासी विश्लेषकों का मानना है कि अगर परिसीमन (delimitation) के बाद सीटें बढ़कर 750 हो जाएं (जैसा कि 2026 के बाद संभव है), तो चुनाव प्रक्रिया जटिल हो सकती है। लेकिन 'नॉमिनेटेड राजा' जैसी कोई व्यवस्था संवैधानिक संशोधन के बिना असंभव है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसलों में (जैसे केशवानंद भारती केस) लोकतंत्र की बुनियादी संरचना को अटल बताया है।
क्या ऐसा होना संभव है? नहीं, ऐसा होना व्यावहारिक रूप से असंभव है। भारत का संविधान लोकतंत्र पर आधारित है, और चुनाव रद्द करने के लिए संसद को विशेष बहुमत से संशोधन करना पड़ेगा, जो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में नामुमकिन है। 2024 चुनाव में भाजपा को 240 सीटें मिलीं, लेकिन पूर्ण बहुमत न मिलने से गठबंधन की मजबूरी बनी। अगर चुनाव रद्द करने की कोशिश हुई, तो यह संवैधानिक संकट पैदा कर देगी। इतिहास गवाह है कि इमरजेंसी (1975) जैसे दौर में भी लोकतंत्र को पूरी तरह कुचला नहीं जा सका। विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसी अफवाहें सियासी ध्रुवीकरण या विपक्षी कमजोरी को उजागर करने के लिए फैलाई जाती हैं।
अवाम की प्रतिक्रिया: विद्रोह की आग या शांतिपूर्ण विरोध? अगर कल्पना करें कि ऐसा होता है, तो जनता की प्रतिक्रिया तीव्र और बहुआयामी होगी। भारत की 96.8 करोड़ मतदाता आबादी (2024 के आंकड़ों के अनुसार) को वोट का अधिकार छीनना लाखों युवाओं, किसानों और मजदूरों के लिए अपमान होगा। सोशल मीडिया पर #SaveDemocracy जैसे अभियान तेज हो जाएंगे, और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन (जैसे 2019 के CAA विरोध या किसान आंदोलन) देखने को मिल सकते हैं। शहरी मध्यम वर्ग सुप्रीम कोर्ट की ओर रुख करेगा, जबकि ग्रामीण इलाकों में हिंसक झड़पें संभव हैं। इतिहास बताता है कि 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार इसी तरह की जनाक्रोश से हुई। कुल मिलाकर, यह लोकतंत्र के खिलाफ 'जन-क्रांति' का रूप ले सकता है, जिसमें युवा पीढ़ी (जो 2024 में 40% मतदाता थी) सबसे आक्रामक भूमिका निभाएगी।
विपक्ष की भूमिका: भ्रष्टाचारग्रस्त दल चुप, लेकिन कांग्रेस भी मूकदर्शक? उपभोक्ता की बात सही है कि कई छोटे-मोटे विपक्षी दल (जैसे क्षेत्रीय पार्टियां) भ्रष्टाचार के आरोपों से जकड़े हैं, इसलिए वे प्रभावी विरोध नहीं कर पाएंगे। लेकिन मुख्य विपक्ष कांग्रेस के लिए यह मौका होगा या चुनौती? 2024 में इंडिया गठबंधन के तहत कांग्रेस ने 99 सीटें जीतीं, जो उसकी नैतिक जिम्मेदारी बढ़ाती है। अगर कांग्रेस चुप रही, तो राहुल गांधी पर 'मूकदर्शक' होने का ठप्पा लगेगा, जो पार्टी को और कमजोर कर देगा। हालांकि, विपक्ष ने पहले भी (जैसे फार्म लॉ पर) एकजुट होकर सरकार को झुकाया है। विशेषज्ञ मानते हैं कि कांग्रेस को सड़क से संसद तक आंदोलन चलाना पड़ेगा, वरना जनता का भरोसा और खो देगी। अन्य दल जैसे सपा-बसपा भ्रष्टाचार के बोझ तले दबे हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ही नेतृत्व कर सकती है।
लोकतंत्र की रक्षा सबकी जिम्मेदारी यह अफवाह हो या सियासी साजिश, लेकिन यह भारत के लोकतंत्र की मजबूती को याद दिलाती है। अगला चुनाव 2029 में निश्चित रूप से होगा, और जनता ही इसका फैसला करेगी। विपक्ष को अपनी कमजोरियों पर काबू पाना होगा, ताकि ऐसी कल्पनाएं हकीकत न बनें। अंत में, संविधान की रक्षा हर नागरिक का कर्तव्य है।