भारत, जहां संविधान ने अछूतता को समाप्त कर दिया और सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया, फिर भी 21वीं सदी में जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव की घटनाएं जारी हैं। एक हालिया घटना ने पूरे देश को हिला दिया है, जहां एक पासी बुजुर्ग को मंदिर में मूत्र चाटने के लिए मजबूर किया गया। यह घटना न केवल मानवता को शर्मसार करती है, बल्कि यह सवाल उठाती है कि क्या हम वास्तव में सामाजिक प्रगति के पथ पर हैं, या क्या हम 17वीं सदी के उस भारत में लौट आए हैं, जहां जाति-आधारित अत्याचार आम थे?
घटना का विवरण सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक वीडियो में दिखाया गया है कि एक बुजुर्ग, जो पासी समुदाय से संबंधित है, को एक मंदिर परिसर में अपमानजनक और अमानवीय कार्य के लिए मजबूर किया गया। इस घटना ने व्यापक निंदा और आक्रोश को जन्म दिया है, क्योंकि यह दलित समुदाय के खिलाफ जारी हिंसा और भेदभाव की एक और भयावह मिसाल पेश करती है।
ऐतिहासिक संदर्भ पासी समुदाय, जो उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में एक प्रमुख दलित समूह है, लंबे समय से जाति-आधारित भेदभाव का सामना कर रहा है। 17वीं सदी में, जाति प्रथा अपने चरम पर थी, और दलितों को अछूत माना जाता था, उन्हें सार्वजनिक स्थानों, मंदिरों और अन्य सामाजिक गतिविधियों से बाहर रखा जाता था। आज, जबकि कानूनी रूप से अछूतता समाप्त हो गई है, सामाजिक मान्यताएं और प्रथाएं अभी भी इन अमानवीय कार्यों को जन्म देती हैं।
कानूनी और सामाजिक चुनौतियां भारत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 जैसे कानून मौजूद हैं, जो दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों को रोकने और दोषियों को सजा देने का प्रावधान करते हैं। फिर भी, इन कानूनों का प्रभावी प्रवर्तन एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। कई मामलों में, स्थानीय अधिकारियों की उदासीनता और सामाजिक दबाव के कारण न्याय तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है।
राजनीतिक आयाम इस घटना ने बीजेपी के शासन पर सवाल उठाए हैं, जिसमें आरोप लगाए गए हैं कि जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा को रोकने में सरकार की विफलता है। आलोचकों का तर्क है कि जबकि कानूनी ढांचा मौजूद है, राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक सुधारों की कमी ने इन अत्याचारों को जारी रखा है।
सामाजिक प्रभाव ऐसी घटनाएं दलित समुदायों में डर और असुरक्षा की भावना को बढ़ाती हैं, जिससे उनकी सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक भलाई प्रभावित होती है। ये घटनाएं न केवल व्यक्तिगत स्तर पर पीड़ितों को प्रभावित करती हैं, बल्कि पूरे समुदाय को एक बार फिर से marginalize करती हैं, जिससे सामाजिक एकता और समानता के लक्ष्य को नुकसान पहुंचता है।
निष्कर्ष और रास्ता आगे यह घटना एक बार फिर से यह याद दिलाती है कि भारत को जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा से लड़ने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है। कानूनी उपायों के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता, शिक्षा और राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। ऐसी घटनाओं के खिलाफ सख्त कार्रवाई और दोषियों को सजा देना आवश्यक है, ताकि भविष्य में ऐसे अत्याचारों को रोका जा सके। साथ ही, मीडिया और सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण है, जो इन मुद्दों को उजागर कर और पीड़ितों को न्याय दिलाने में मदद कर सकते हैं। केवल तभी हम 21वीं सदी के भारत में एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना कर सकते हैं, जहां हर नागरिक को गरिमा और समानता के साथ जीने का अधिकार हो।
समापन इस घटना ने हमें यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या हम वास्तव में 21वीं सदी में जी रहे हैं, या क्या हम 17वीं सदी के उस भारत में लौट आए हैं, जहां जाति-आधारित अत्याचार सामान्य थे। यह समय है कि हम सभी, चाहे वह सरकार हो, समाज हो, या व्यक्ति, इस मुद्दे को गंभीरता से लें और एक ऐसे भारत का निर्माण करें, जहां हर नागरिक को समानता और न्याय मिले।