किसानों की बदहाली और कॉरपोरेट मित्रों की मौज-मस्ती का खेल भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में एक गहरी खाई को उजागर करता है। एक तरफ किसान, जो देश का अन्नदाता है, कर्ज के जाल में फंसकर अपने खेत, घर, और जमीन तक गंवा देता है। दूसरी तरफ, बड़े-बड़े कॉरपोरेट घराने, जिन्हें हजारों करोड़ों का लोन मिलता है, कर्ज न चुका पाने पर भी आसानी से बच निकलते हैं। क्या यह सिर्फ संयोग है, या सत्ता के गलियारों में बिछी दोस्ती की चादर का कमाल? किसान जब फसल बेचता है, तो उसका कर्ज बैंक तुरंत वसूल लेता है। मेहनत का फल मिलने से पहले ही उसकी कमाई छीन ली जाती है। कर्ज के बोझ तले दबा किसान न तो अपने परिवार का पेट पाल पाता है, न ही अगली फसल के लिए संसाधन जुटा पाता है। नतीजा? उसका सब कुछ—खेत, घर, और खार—बिक जाता है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर साल हजारों किसान कर्ज के कारण आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। वहीं, दूसरी तस्वीर देखिए। कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट मित्र, जिन्हें बैंकों ने हजारों करोड़ों का लोन दिया, कर्ज न चुका पाने पर भी न तो उनकी संपत्ति कुर्क होती है, न ही कोई सख्त कार्रवाई। बल्कि, बैंकों ने उनके खातों को "फ्रॉड" घोषित कर मामले को रफा-दफा कर दिया। सवाल उठता है—क्या इनके सत्ता से रिश्ते इतने गहरे हैं कि कानून भी इनके सामने बौना पड़ जाता है? **चुनावी हिंदू का दर्द** इस दोहरे मापदंड के बीच एक और सच्चाई है, जो हिंदुओं के नाम पर सियासत करने वालों की पोल खोलती है। "हम सब हिंदू हैं," यह नारा चुनावी रैलियों में गूंजता है, लेकिन जैसे ही वोट पड़ जाते हैं, हिंदुओं का दर्द भुला दिया जाता है। दिल्ली में झोपड़पट्टियों में रहने वाले हिंदुओं के घर टूट रहे हैं, उनके सपने मलबे में दब रहे हैं। फिर भी, सत्ता के गलियारों में उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। चुनाव के समय "हिंदू-हिंदू" का शोर मचाने वाले, चुनाव बाद इनकी तकलीफों को क्यों भूल जाते हैं?
लेखक का दृष्टिकोण
यह लेख सामाजिक अन्याय और दोहरे मापदंड को उजागर करता है, जो किसानों और आम हिंदुओं के साथ हो रहा है। यह सवाल उठाता है कि क्या सत्ता और पूंजी का गठजोड़ आम आदमी के हक को कुचल रहा है?