महाराष्ट्र, जहां खेती-किसानी राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, वहां किसानों की दुर्दशा एक गंभीर सवाल खड़ा कर रही है। लातूर जिले के हदोलती गांव में 76 वर्षीय किसान अंबादास पवार और उनकी पत्नी पिछले दस सालों से अपने खेतों को हल से हाथों से जोत रहे हैं। कारण? उनके पास बैल खरीदने या रखरखाव के लिए पैसे नहीं हैं। यह सिर्फ एक किसान की कहानी नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के लाखों किसानों की त्रासदी है, जो कर्ज, सूखा, और बढ़ती लागत के बोझ तले दबे हैं।
केंद्र और राज्य सरकार की ओर से किसानों के लिए कई योजनाएं चल रही हैं, जैसे प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (PMKSN) और नमो शेतकारी महासम्मान योजना, जो प्रति वर्ष 6,000 रुपये केंद्र और 6,000 रुपये राज्य की ओर से देने का वादा करती हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह राशि वास्तव में जरूरतमंद किसानों तक पहुंच रही है? 2023 में सामने आए एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, महाराष्ट्र में 12.71 लाख अपात्र किसानों ने PMKSN का लाभ उठाया, जिनमें से कई ने जाली दस्तावेजों का सहारा लिया। इस बीच, अंबादास जैसे किसान, जो अपने खेतों को हाथ से जोतने को मजबूर हैं, सरकारी सहायता से वंचित हैं।
लातूर जैसे सूखा प्रभावित क्षेत्रों में किसानों को न सिर्फ प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि बीज, खाद, और कीटनाशकों की बढ़ती कीमतों ने उनकी कमर तोड़ दी है। अंबादास की पत्नी का कहना है, "सोयाबीन के खाद की कीमत 3,000 रुपये प्रति बोरी है, और बाजार में फसल बेचने पर हमें 4,000 रुपये मिलते हैं। फिर खर्च कैसे पूरा करें?" दूसरी ओर, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी न होने से किसानों को अपनी फसल घाटे में बेचनी पड़ती है। कपास की लागत 6,500-7,000 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि बाजार में यह 6,800 रुपये में बिक रही है।
किसानों की आत्महत्याओं का आंकड़ा भी भयावह है। 2023 में महाराष्ट्र में 2,851 किसानों ने आत्महत्या की, और 2024 में जनवरी से मार्च के बीच 767 किसानों ने अपनी जान गंवाई। ये आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन परिवारों की टूटी उम्मीदों की कहानी हैं, जिन्हें सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं मिला। विडंबना यह है कि जब किसान कर्जमाफी की मांग करते हैं, तो उनकी आवाज अनसुनी रहती है, लेकिन अपात्र लोगों के खातों में लाखों रुपये पहुंच जाते हैं।
क्या सरकार की योजनाएं केवल कागजों तक सीमित हैं? क्या दो-दो हजार की राशि वास्तव में उन किसानों तक पहुंच रही है, जो अपने खेतों में पसीना बहा रहे हैं, या यह दूसरों के खातों में जा रही है? अंबादास पवार जैसे किसानों की कहानी केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक बड़ा सवाल है। जब तक इन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे, और जब तक किसानों को वास्तविक सहायता नहीं मिलेगी, तब तक महाराष्ट्र का किसान हल से जुतता रहेगा, और उसकी पीड़ा अनसुनी रहेगी। यह लेख कॉपीराइट मुक्त है और इसे स्वतंत्र रूप से साझा किया जा सकता है।