भारत का संविधान समानता का वादा करता है, लेकिन पुलिस और अफ़सरशाही में जाति की जड़ें कितनी गहरी हैं? दलित आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार की आत्महत्या ने इस सवाल को फिर से ज्वलंत कर दिया। हरियाणा के वरिष्ठ अधिकारी पूरन ने सुसाइड नोट में लिखा: "जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न ने मुझे तोड़ दिया।" यह अकेली घटना नहीं – सुप्रीम कोर्ट में जूता फेंकने वाली घटना से लेकर रोज़मर्रा के अपमान तक, दलित अफ़सरों का सफ़र आरक्षण के बावजूद कांटों भरा है। आरक्षण ने दरवाज़े खोले। आज दलित समुदाय से आईएएस, आईपीएस और जज बन रहे हैं। लेकिन ऊँचे पद पर पहुँचते ही 'अस्पृश्यता' की छाया लौट आती है। सहकर्मी मीटिंग में अनसुना कर देते हैं, प्रमोशन रोके जाते हैं, ट्रांसफ़र दंडस्वरूप होते हैं।
एक सर्वे के अनुसार, 70% दलित अफ़सरों ने कार्यस्थाफल में जातिगत भेदभाव महसूस किया। उत्तर प्रदेश में दलित डीएसपी को 'चाय मत पिलाओ' कहकर अपमानित किया गया। राजस्थान में दलित कलेक्टर के दफ़्तर में 'अशुद्ध' चाय का बहिष्कार हुआ। पूरन कुमार केस में हरियाणा पुलिस ने 'व्यक्तिगत कारण' बताया, लेकिन परिवार ने वरिष्ठ अफ़सरों पर जातिसूचक टिप्पणियों का आरोप लगाया। एनसीआरबी डेटा दिखाता है कि दलितों के ख़िलाफ़ अपराध 2024 में 8% बढ़े, लेकिन पुलिस थानों में दलित शिकायतें दर्ज़ करने में 40% देरी होती है। सिस्टम के भीतर ही दलित अफ़सरों को 'अपने लोगों' के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने को मजबूर किया जाता है – जैसे थाना प्रभारी को दलित प्रदर्शन दबाने का आदेश।
विशेषज्ञ कहते हैं: "आरक्षण पद देता है, सम्मान नहीं।" दलित चैंबर ऑफ़ कॉमर्श के अध्यक्ष मिलिंद कांबले बोले, "पदोन्नति में जाति कोटा लागू नहीं होता, वहाँ भेदभाव खुलकर आता है।" सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में एससी/एसटी एक्ट कमज़ोर किया, जिससे पुलिस में दलित अफ़सरों का मनोबल टूटा। क्या बदलाव संभव है? कुछ राज्य आंतरिक शिकायत तंत्र बना रहे हैं, लेकिन बिना सवर्ण मानसिकता बदले यह कागज़ी। पूरन कुमार की मौत चेतावनी है – अगर सिस्टम के अंदर भी दलित 'दलित' रहेगा, तो संविधान की आत्मा खतरे में है। समय है, जाति की दीवारें तोड़ने का – वरना अगला शिकार कोई और होगा।