दिल्ली, भारत की राजधानी, जहां सत्ता के गलियारों में विकास की बातें गूंजती हैं, वहां गरीबों के आशियाने बुलडोजर की भेंट चढ़ रहे हैं। बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के बाद दिल्ली में दो बड़े काम सुर्खियों में हैं। पहला, दो सरकारी बंगलों को जोड़कर नई मुख्यमंत्री के लिए पंद्रह कमरों का विशाल आवास तैयार करना। दूसरा, झुग्गी-झोपड़ी और कच्ची बस्तियों में रहने वाले गरीबों के घरों को बुलडोजर से ध्वस्त करना। यह विडंबना ही है कि जहां एक ओर सत्ता की भव्यता बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर गरीबों की जिंदगी मलबे में तब्दील हो रही है। दिल्ली की झुग्गी बस्तियों में रहने वाले ये लोग, जो दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक, या छोटे-मोटे काम करके अपने परिवार का पेट पालते हैं, अब बेघर होने की कगार पर हैं। उनके घर, जो भले ही कच्चे थे, मगर उनके सपनों का ठिकाना थे, रातोंरात उजाड़ दिए गए। बुलडोजर की गड़गड़ाहट ने न सिर्फ उनके घर तोड़े, बल्कि उनकी उम्मीदों को भी कुचल दिया। इन गरीब भारतीय नागरिकों की पीड़ा, उनके आंसुओं की कहानी, राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों से गायब है। सिर्फ कुछ यूट्यूब चैनल और स्वतंत्र पत्रकार इनके दुख को दर्ज कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज भी मुख्यधारा के शोर में दब जाती है। हमारा समाज इतना निस्पृह हो चुका है कि अपने आसपास के इन गरीबों को हम इंसान मानने को तैयार नहीं। उनकी कराह, उनका दर्द हमें छूता तक नहीं। हमने उन्हें "बांग्लादेशी" या "रोहिंग्या" का लेबल देकर अपनी अंतरात्मा को शांत कर लिया है। यह लेबल हमें उनके प्रति मानवीय संवेदना से मुक्त कर देता है। हम भूल जाते हैं कि ये वही लोग हैं जो हमारे शहरों को चलाते हैं—हमारे घरों को साफ करते हैं, हमारी सड़कों को बनाते हैं, और हमारे लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। क्या विकास का मतलब सिर्फ भव्य भवनों का निर्माण है? क्या प्रगति का पैमाना गरीबों को बेघर करना है? दिल्ली में चल रहे इस बुलडोजर अभियान ने न सिर्फ हजारों परिवारों को उजाड़ा है, बल्कि हमारे समाज की संवेदनशीलता पर भी सवाल उठाए हैं। जब तक हम इन गरीबों को अपने बराबर इंसान नहीं मानेंगे, जब तक उनकी पीड़ा हमें अपनी नहीं लगेगी, तब तक हमारा समाज अधूरा ही रहेगा।
लेखक: सामाजिक चेतना के लिए एक आवाज